जय श्री राधे कृष्णा! आज हम आपके लिए लपसी-तपसी की कहानी (Lapsi Tapsi Ki Kahani | लपसी तपसी और नारद जी वाली प्रसिद्ध कथा) लेकर आए हैं।
एक समय की बात है, किसी गांव में दो मित्र रहते थे। एक का नाम लपसी था और दूसरे का नाम तपसी। तपसी सदा भगवान की सेवा-पूजा में लीन रहता था और लपसी रोज़ सवा शेर दही की लस्सी बनाकर भगवान को भोग लगाकर खुद भी पी लेता, फिर चद्दर तानकर सो जाता।
एक बार दोनों मित्रों में बहस छिड़ गई कि भगवान का बड़ा भक्त कौन है। लपसी बोला, “मैं बड़ा भक्त हूं।” तो तपसी बोला, “मैं बड़ा भक्त हूं, क्योंकि मैं सारा दिन भगवान की भक्ति में लगा रहता हूं।”
संयोगवश उसी समय नारद मुनि पृथ्वी के भ्रमण के लिए आए हुए थे। जब नारद जी ने लपसी-तपसी को आपस में झगड़ते देखा, तो नारद जी ने लड़ाई का कारण पूछा। तब दोनों ने नारद मुनि को प्रणाम किया और अपनी समस्या बताई। पहले तपसी ने कहा, “हे मुनीश्वर, मैं भगवान की भक्ति में हमेशा लीन रहता हूं। दीन-दुनिया का ख्याल भी मुझे नहीं रहता, इसलिए मैं भगवान का बड़ा भक्त हूं। लेकिन यह लपसी मान ही नहीं रहा और खुद को भगवान का बड़ा भक्त बता रहा है।”
फिर लपसी ने कहा, “हे मुनीश्वर, मुझे पूजा-पाठ, भक्ति आदि नहीं आती, लेकिन मेरा मन कहता है कि मैं भगवान का सच्चा भक्त हूं। परंतु यह मेरी बात नहीं मान रहा।”
दोनों की बात सुनकर नारद मुनि ने कहा, “इसमें लड़ने की कोई बात नहीं है। इसका फैसला मैं कल कर दूंगा कि तुम दोनों में से सर्वश्रेष्ठ कौन है।”
दोनों ने नारद मुनि की बात मानकर अपने-अपने घर चले गए। अगले दिन तपसी रोज की तरह सुबह स्नान आदि करके पेड़ के नीचे आसन बिछाकर साधना करने बैठ गया। थोड़ी देर में वहां नारद मुनि आए और उसे साधना करते देख, उसके आगे एक सवा करोड़ की अंगूठी फेंक दी। तपसी साधना करता हुआ जोर-जोर से मंत्र जाप कर रहा था। जैसे ही उसकी नजर अंगूठी पर पड़ी, उसने इधर-उधर देखा और अंगूठी को उठाकर अपने पैर के नीचे दबा लिया, और फिर जोर-जोर से मंत्र जाप करने लग गया।
उधर, लपसी भी जल्दी उठकर स्नान आदि करके सवा शेर की लस्सी बनाई और भगवान को भोग लगाकर खुद भी पी रहा था। तभी वहां नारद मुनि अदृश्य रूप में आए और उसके सामने भी सवा करोड़ की अंगूठी डाल दी। लपसी की नजर भी उस अंगूठी पर गई। उसने उसे उठाया और सोचने लगा, “यह तो बहुत महंगी लग रही है। जिस बेचारे की गिरी होगी, वह तो कितना दुखी होगा। मुझे पता लगाना चाहिए कि यह अंगूठी किसकी है।”
वह आसपास सब जगह देखने लगा, लेकिन उसे कोई दिखाई नहीं दिया। तब उसने गांव के सरपंच को वह अंगूठी दे दी और कहा, “आप गांव वालों से पूछ लेना कि यह अंगूठी किसकी है।” फिर वह वहीं आ गया जहां तपसी साधना कर रहा था।
वहां नारद जी भी आ गए और बोले, “तुम दोनों में से लपसी बड़ा भक्त है।”
तपसी ने इसका कारण पूछा, तो नारद मुनि बोले, “जो अंगूठी तेरे घुटने के नीचे दबी है, तुमने उसे चुराया है, जिसने तेरी साधना भंग की है। लेकिन लपसी ने वह अंगूठी सरपंच को दे दी।”
अब तपसी को अपने किए पर शर्मिंदा होना पड़ा। तब नारद मुनि बोले, “भक्ति का मतलब दिन-रात भगवान के सामने बैठना नहीं है। सच्ची भक्ति का मतलब है कि मन का भाव सच्चा और साफ होना चाहिए।”
अब तपसी को समझ आ गया कि उसने कितनी बड़ी गलती की है। वह दोनों हाथ जोड़कर नारद मुनि के सामने खड़ा हो गया और बोला, “मेरी गलती माफ करें और कोई रास्ता बताएं जिससे मुझे मेरी तपस्या का फल मिल सके।”
तब नारद जी ने कहा, “तुम सच्चे मन से कार्तिक नहाओ, कार्तिक का व्रत व पूजा-पाठ करो, तभी तुम्हें सच्ची भक्ति प्राप्त हो सकती है।”
फिर अगले वर्ष कार्तिक मास आने पर उसने स्नान, पूजा-पाठ आदि सब किया। जब कार्तिक मास पूरा हुआ, तब नारद मुनि वहां आए और बोले, “अब तुम भगवान के सच्चे भक्त हो। जैसे हीरे को तराशने पर उस पर चमक आती है, वैसे ही तुम्हारी भक्ति में भी चमक आ गई है। इसलिए मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि जो भी कार्तिक नहाएगा, वह तुम्हारी कहानी जरूर सुनेगा। जो कोई भी कार्तिक की कहानी सुनकर तुम्हारी कहानी नहीं सुनेगा, उसे कार्तिक स्नान का फल नहीं मिलेगा।”
“हे कार्तिक महाराज, जैसे तपसी का मार्गदर्शन किया और उसे सच्ची भक्ति दी, वैसे ही इस कहानी को कहते-सुनते और हुंकारा भरते सबको देना। बोलो, लपसी-तपसी की जय!”